प्रेमा भाग 5
अँय ! यह गजरा क्या हो गया?
पंडित बंसतकुमार का दुनिया से उठ जाना केवल पूर्णा ही के लिए जानलेवा न था, प्रेमा की हालत भी उसी की-सी थी। पहले वह अपने भाग्य पर रोया करती थी। अब विधाता ने उसकी प्यारी सखी पूर्णा पर विपत्ति डालकर उसे और भी शोकातुर बना दिया था। अब उसका दुख हटानेवाला, उसका गम गलत करनेवाला काई न था। वह आजकल रात-दिन मुँह लपेटे चारपाई पर पड़ी रहती। न वह किसी से हँसती न बोलती। कई-कई दिन बिना दाना-पानी के बीत जाते। बनाव-सिगार उसको जरा भी न भाता। सर के बल दो-दो हफ्ते न गूँथे जाते। सुर्मादानी अलग पड़ी रोया करती। कँघी अलग हाय-हाय करती। गहने बिल्कुल उतार फेंके थे। सुबह से शाम तक अपने कमरे में पड़ी रहती। कभी ज़मीन पर करवटें बदलती, कभी इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती, बहुधा बाबू अमृतराय की तस्वीर को देखा करती। और जब उनके प्रेमपत्र याद आते तो रोती। उसे अनुभव होता था कि अब मैं थोड़े दिनों की मेहमान हूँ।
पहले दो महीने तक तो पूर्णा का ब्रह्मणों के खिलाने-पिलाने और पति के मृतक-संस्कार से सॉँस लेने का अवकाश न मिला कि प्रेमा के घर जाती। इसके बाद भी दो-तीन महीने तक वह घर से बाहर न निकली। उसका जी ऐसा बुझ गया था कि कोई काम अच्छा न लगता। हाँ, प्रेमा मॉँ के मना करने पर भी दो-तीन बार उसके घर गयी थी। मगर वहॉँ जाकर आप रोती और पूर्णा को भी रुलाती। इसलिए अब उधर जाना छोड़ दिया था। किन्तु एक बात वह नित्य करती। वह सन्ध्या समय महताबी पर जाकर जरुर बैठती। इसलिए नहीं कि उसको समय सुहाना मालूम होता या हवा खाने को जी चाहता था, नहीं प्रत्युत केवल इसलिए कि वह कभी- कभी बाबू अमृतराय को उधर से आते-जाते देखती। हाय लिज वक्त वह उनको देखते उसका कलेजा बॉँसों उछालने लगता। जी चाहता कि कूद पडूँ और उनके कदमों पर अपनी जान निछावर कर दूँ। जब तक वह दिखायी देते अकटकी बॉँधे उनको देखा करती। जब वह ऑंखों से आझला हो जाते तब उसके कलेजे में एक हूक उठती, आपे की कुछ सुधि न रहती। इसी तरह कई महीने बीत गये।
एक दिन वह सदा की भॉँति अपने कमरे में लेटी हुई बदल रही थी कि पूर्णा आयी। इस समय उसको देखकर ऐसा ज्ञात होता था कि वह किसी प्रबल रोग से उठी है। चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे कोई फूल मुरझा गया हो। उसके कपोल जो कभी गुलाब की तरह खिले हुए थे अब कुम्हला गये थे। वे मृगी की-सी ऑंखें जिनमें किसी समय समय जवानी का मतवालापन और प्रेमी का रस भरा हुआ था अन्दर घुसी हुई थी, सिर के बाल कंधों पर इधर-उधर बिखरे हुए थे, गहने-पाते का नाम न था। केवल एक नैन सुख की साड़ी बदन पर पड़ी हुई थी। उसको देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से चिपट गयी और लाकर अपनी चारपाई पर बिठा दिया।
कई मिनट तक दोनों सखियॉँ एक-दूसरे के मुँह को ताकती रहीं। दोनो के दिल में ख्यालों का दरिया उमड़ा हुआ था। मगर जबान किसी की न खुलती थी। आखिर पूर्णा ने कहा—आजकल जी अच्छा नहीं है क्या? गलकर कॉँटा गयी हो
प्रेमा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा—नहीं सखी, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। तुम तो कुशल से रही?
पूर्णा की ऑंखों में आँसू डबडबा आये। बोली—मेरा कुशल-आनन्द क्या पूछती हो, सखी आनन्द तो मेरे लिए सपना हो गया। पॉँच महीने से अधिक हो गये मगर अब तक मेरी आँखें नहीं झपकीं। जान पड़ता है कि नींद ऑंसू होकर बह गयी।
प्रेमा—ईश्वर जानता है सखी, मेरा भी तो यही हाल है। हमारी-तुम्हारी एक ही गत है। अगर तुम ब्याही विधवा हो तो मैं कुँवारी विधवा हूँ। सच कहती हूँ सखी, मैने ठान लिया है कि अब परमार्थ के कामों में ही जीवन व्यतीत करुँगा।
पूर्णा—कैसी बातें करती हो, प्यारी मेरा और तुम्हारा क्या जोड़ा? जितना सुख भोगना मेरे भाग में बदा था भोग चुकी। मगर तुम अपने को क्यों घुलाये डालती हो? सच मानो, सखी, बाबू अमृतराय की दशा भी तुम्हारी ही-सी है। वे आजकल बहुत मलिन दिखायी देते है। जब कभी इधर की बात चलती हूँ तो जाने का नाम ही नहीं लेते। मैंने एक दिन देखा, वह तुम्हारा काढ़ा हुआ रुमाला लिये हुए थे।
यह बातें सुनकर प्रेमा का चेहरा खिल गया। मारे हर्ष के ऑंखें जगमगाने लगी। पूर्णा का हाथ अपने हाथों में लेकर और उसकी ऑंखों से ऑंखें मिलाकर बोली-सखी, इधर की और क्या-क्या बातें आयी थीं?
पूर्णा-(मुस्कराकर) अब क्या सब आज ही सुन लोगी। अभी तो कल ही मैंने पूछा कि आप ब्याह कब करेंगे, तो बोले-‘जब तुम चाहो।’ मैं बहुत लजा गई।
प्रेमा—सखी, तुम बड़ी ढीठ हो। क्या तुमको उनके सामने निकलते-पैठते लाज नहीं आती?
पूर्णा—लाज क्यों आती मगर बिना सामने आये काम तो नहीं चलता और सखी, उनसे क्या परदा करूँ उन्होंने मुझ पर जो-जो अनुग्रह किये हैं उनसे मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। पहिले ही दिन, जब कि मुझ पर वह विपत्ति पड़ी रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी। जो कुछ असबाबा था पापियों ने मूस लिया। उस समय मेरे पास एक कौड़ी भी न थी। मैं बड़े फेर में पड़ी हुई थी कि अब क्या करुँ। जिधर ऑंख उठाती, अँधेरा दिखायी देता। उसके तीसरे दिन बाबू अमृतराय आये। ईश्वर करे वह युग-युग जिये: उन्होंने बिल्लो की तनख़ाह बॉँध दी और मेरे साथ भी बहुत सलूक किया। अगर वह उस वक्त आड़े न आते तो गहने-पाते अब तक कभी के बिक गये होते। सोचती हूँ कि वह इतने बड़े आदमी हाकर मुझ भिखारिनी के दरवाजे पर आते है तो उनसे क्या परदा करुँ। और दूनिया ऐसी है कि इतना भी नहीं देख सकती। वह जो पड़ोसा में पंडाइन रहती है, कई बार आई और बोली कि सर के बाल मुड़ा लो। विधवाओं का बाल न रखना चाहिए। मगर मैंने अब तक उनका कहना नहीं माना। इस पर सारे मुहल्ले में मेरे बारे में तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कोई कुछ कहता हैं, कोई कुछ। जितने मुँह उतनी बातें। बिल्लो आकर सब वृत्तान्त मुझसे कहती है।सब सुना लेती हूँ और रो-धोकर चुप हो रहती हूँ। मेरे भाग्य में दुख भोगना, लोगों की जली-कटी सुनना न लिखा होता तो यह विपत्ति ही काहे को पड़ती। मगर चाहे कुछ हो मैं इन बालों को मुँड़वाकर मुण्डी नहीं बनना चाहती। ईश्वर ने सब कुछ तो हर लिया, अब क्या इन बालों से भी हाथ धोऊँ।